ऐसे अनेक उदाहरण देखने में आए हैं, जब महिलाओं के अपने बेटे या परिवार वाले ही, उन्हें वृंदावन में बेसहारा छोड़ गए और फिर लौटकर कभी उनका हाल पूछने नहीं आए। यह सामाजिक बुराई, देश की संस्कृति पर एक कलंक है। यह कलंक जितनी जल्दी मिट सके, उतना ही अच्छा होगा।
मेरा विचार है कि समाज में ‘कृष्णा कुटीर’ प्रकार के आश्रय-गृहों के निर्माण की आवश्यकता ही नहीं पड़नी चाहिए। प्रयास तो यह होना चाहिए कि निराश्रित महिलाओं के पुनर्विवाह, आर्थिक स्वावलंबन, पारिवारिक सम्पत्ति में हिस्सेदारी, सामाजिक और नैतिक अधिकारों की रक्षा जैसे उपाय किए जाएं।
मैं समाज के सभी जिम्मेदार नागरिकों से भी अपील करता हूं कि सामाजिक जीवन से दूर हो गई इन माताओं को समाज की मुख्य-धारा में शामिल किया जाए। समाज के साथ उनका संपर्क बढ़ाया जाना चाहिए। तीज-त्योहारों, मेलों-उत्सवों में उनकी अनुभव-पूर्ण भागीदारी को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।